कट रही थी ज़िन्दगी
मेरी, क्या तेरा यूँ ज़िन्दगी में आना ज़रूरी था?
काटों भरी थी राहें
मेरी, क्या उनपे यूँ फूल बिछाना ज़रूरी था?
जख्म दिए हर समय समय
ने मुझे, क्या उनपे मरहम लगाना ज़रूरी था?
हो गई थी बेरंग जीने
की आदत, क्या ज़िन्दगी फिर रंगीन बनाना ज़रूरी था?
सांस लेना भूल गया
था, क्या फिर जीना सिखाना ज़रूरी था?
प्यार का नामोनिशां
मिटा दिया था खुदसे, क्या फिर प्यार सिखाना ज़रूरी था?
चल प्यार सिखा भी
दिया, क्या रोज़ सपनों में आना ज़रूरी था?
सपनों में आने का भी
हक दिया, क्या मेरी मंजिल बन जाना ज़रूरी था?
तेरे मंजिल बन जाने
से भी शिकवा नहीं, पर क्या फिर यूँ राह में छोड़ जाना ज़रूरी था???
कट रही थी ज़िन्दगी
मेरी, क्या तेरा यूँ ज़िन्दगी में आना ज़रूरी था???
- अविनाश